Sunday, September 28, 2008

"ओशो के विचारों पर मेरी निराशा "

मैं ओशो के विचारों से मूलतः सहमत नहीं रहा...ओशो /रजनीश के व्याख्यान इसलिए मैंने पढे कि एक दर्शन शास्त्र के व्याख्याता से "rational & unbiased" विवेचना की उम्मीद थी ...पर मैं निराश ही हुआ..
बुद्ध और जैन विचारधारा का कहीं तो समर्थन करते हैं, तो कहीं उनकी आलोचना ,वो भी एक ही मुद्दे पर... कही पर मूर्तिपूजा की "inevitability" पर बात करते है , तो कही उसके विरोध में...आपने पूर्व के चिन्तक -विचारक बंधुओं की बातों को नया मुलम्मा चढा कर पेश किया है.

"अगर एक स्त्री के माथे पर ठीक जगह पर टीका है तो वह सिर्फ पति के प्रति को अनुगत हो सकेगी, शेष सारे जगत के प्रति वह सबल हो जायेगी .मंत्र का उपयोग स्त्री के टीके में किया गया है .....इस टीके को सीधा नहीं रख दिया गया उसके माथे पर,नहीं तो उसका स्त्रीत्व कम होगा --ओशो "

स्त्री के टीके पर उनके विचार भी मुझे हतोत्साहित कर गए ...उसी तरह जैसे ज्योतिष ,हस्तरेखा ,बाल-विवाह आदि पर उनके विचार पारंपरिक जड़ता से ग्रषित रहे . कई बार अपने ही विचारो के उनका विरोधाभास खुल कर सामने आया है .....

मैं बिना सोचे-समझे अनुकरण को गलत मानता हूँ. इतने सारे तथाकथित धर्मगुरुओं और सम्प्रदायों का कुकुरमुत्ते की तरह उग आना सोचनीय है...कट्टरवाद और आतंकवाद के मूल में यही अनुकरण है .एक जगह ओशो भी कहते हैं.."कोई बुद्धिमान व्यक्ति कभी किसी का अनुयायी नहीं होता ,सिर्फ बुद्धिहीन लोग अनुयायी बनते हैं .अनुयायियों की जमात बुद्धिहीनो की जमात है ...."फ़िर इतने सारे अनुयायी बनाने के पीछे क्या उनका ख़ुद का महानता का व्यामोह नही था ????
खुद के लिए कभी "भगवान" रजनीश, तो कभी "ओशो" कहना स्वीकारना महानता के व्यामोह से ग्रसित होना नहीं है तो क्या है ?बाद के दिनों में उनकी भाषा -शैली भी उन धर्म-गुरुओं की तरह ही हो गयी थी ,जो खुद को निर्वाण दिलाने का ठेकेदार घोषित करते पाए जाते है ।
कुल मिलकर सम्भोग की स्वच्छंदता की वकालत करते समय कुछ नया कहते दीखते है ,पर यहाँ भी "फ्रायड" की यौन-कुंठा प्रधान विचारधारा की ही नक़ल कर रहे हैं ।उनकी ही तरह सामान्यजन के हर आचार -विचार को यौन क्रिया के विभिन्न पहलुओं और विकृतियों के दायरे में बांध कर देखतें हैं, जो कि अब गलत सिद्ध हो चुकी है.
रजनीश जी दर्शन शास्त्र के मीमांसक रहे है ,इसलिए उनकी बातें दर्शन की विभिन्न धाराओं से प्रभावित हैं .पर कुल मिलाकर वो पुरानी शराब को नयी बोतल में नए लेबल के साथ पेश करते दीखते है . यह कोई बुरी बात नहीं है .पर दुःख और क्षोभ का विषय यह है कि इसके साथ वो "बुद्ध" की तरह महाबोध होने के बाद पैदा हुए विचार की बात जोड़ते हैं.