Monday, March 1, 2010

"क्या सच,क्या झूठ --समय का फेर ,नज़रों का भ्रम ..."

सच हमेशा सापेक्ष होता है.यह पृथ्वी चपटी है,यह बात सदियों तक सच ही थी, जब तक नयी खोज नये नज़रिये ने इसको गोलाकार सिद्ध करते हुए एक नये सच से इसको विस्थापित नही किया....

वैसे ही ब्रह्माण्ड की केन्द्र -बिन्दु भी तो हमारी पृथ्वी ही रही युगों तक, बाद में सूर्यदेव इसको इस सत्ता से विस्थापित कर नये केन्द्रित सच के रूप मे अवतरित हुए.अब तो न जाने कितने ही सूर्य और सौर्यमन्डल है इस ब्रह्माण्ड में,पता ही नही....

जब से मानव ने होश संभाला,तब से कितने ही काल-खन्ड गुजर गये इस सच के साथ---घने जंगलो के पार,पहाड़ की चोटी के पिछे से,नदी के उस छोर पर ,सागर के गर्भ से पूरब मे क्षितिज पर सूरज रोज सुबह उगता है....पर सदियाँ गुजर गयी तब नये सच ने कहा कि यह क्षितिज तो महज हमारी नज़रों का विभ्रम है ...और तो और, सूर्य का उदय और अस्त होना भी................सच तो यह है कि हमारी पृथ्वी ही घुमती रहती है उसके चारो ओर ,सूर्य तो वहीँ का वहीँ रहता है सुबह-शाम,दिन-रात...


देखने वाली बात यह है कि ये नए सच कब तक अपने सच की सत्ता पर सचमुच आसीन रह पातें है ?????????????

Thursday, January 21, 2010

"जातिभेद-रंगभेद और ख़ुदा बनने की जुत्सजू"

बात चाहे दलित की हो,नारी-दमन की हो या रंगभेद की,मंसा मूलतः एक व्यक्ति या व्यक्ति-समूह को दूसरे की तुलना में बेहतर/उच्चतर साबित /स्थापित करने की है...

सभी कुरीतियों और कुप्रथाओं के जड़ में कारण तो आर्थिक-सामाजिक शोषण ही है.....

उसपर धार्मिक मुलम्मा चढ़ाकर उसके प्रति प्रतिरोध को कुंद किया जान ही उद्देश्य रहा है हमेशा-हमेशा से..

सनातन काल से मनुष्य महानता के व्यामोह से ग्रसित है,और वो खुद को सभी से ऊपर अवस्थित देखना चाहता है ..

शायद खुद को खुदा घोषित कर सर्वोपरि बन जाने की जुत्सजू है...

कहीं ईश्वर/खुदा/GOD की अवधारणा ही तो नहीं है इन सबके मूल में???????