'हंस' के june 2008 अंक में माननीय राजेंद्र यादव जी ने ''तेरी मेरी उसकी बात' के अंतर्गत स्त्री-विमर्श से सम्बंधित अपने लेख में यह विचार व्यक्त किया है कि रतिक्रिया और जननांगों के बेलौस प्रदर्शन और चर्चा के माहौल से ही नारी का सशक्तिकरण संभव है.उनका विचार है कि जो भी सफल महिलाऐं हैं ,उनको अपने उन्नत शिखर तक की यात्रा के दौरान हुए 'लौन्चिंग काउच' अनुभवों के बारे में बेहिचक विस्तार से सबको बताना चाहिए ,ताकि नारी -मुक्ति आन्दोलन का भला हो॥स्त्री-विमर्श को रति क्रिया, देह ,योनी और आसानो के दायरे में बांधकर इस बृहद मुद्दे का संकीर्ण सतहीकरण करने की कोशिश का मैं विरोध करता हूँ
"परंपरागत आसन जहाँ स्त्री चित्त लेटी है और पुरुष ऊपर है,यह एक पराजित व्यक्ति की मुद्रा है"
सिमोन द बोउआ के इस कथन से राजेंद्र जी की सहमति ने मुझे उलझन और परेशानी में डाला है।क्या इस आसन को उलट देने से नारीमुक्ति संघर्ष में कोई क्रन्तिकारी परिवर्तन आ जायेगा ??? इस तरह का तर्क-कुतर्क ऐसे संवेदन शील मुद्दे को बेमतलब और बेहूदा आयामों से जोड़ता है और इसको नुकसान ज्यादा पहुचाता है॥
आज के परिवेश में नारी का दोयम दर्जे की स्तिथि का कारण उसका आर्थिक -परावलंबन और धार्मिक -सामाजिक मान्यताओं का पितृसत्तात्मक होना है। आर्थिक , सामाजिक ,शैक्षिक और धार्मिक सभी आयामों में बराबर की हिस्सेदारी ही सही मायने में सशक्त नारी वर्ग के उदभव को साकार कर सकती है।
राजेन्द्रजी का यह लिखना है कि यौनाचार की खुली चर्चा और और प्रदर्शन की छुट से नारी मुक्ति साकार हो पायेगी । अगर ऐसा है तो अश्लील साहित्य , चित्र और विडियो तो आज सारे आम उपलब्ध है जो नारी और पुरुष दोनों के लिए सुलभ है. फिर तो नारी मुक्ति को अपने मुकाम तक पंहुचा मान लेना चाहिए और इस तरह के विमर्श की भी जरूरत नहीं होनी चाहिए !!!!!
हमारे मेट्रो शहरों में 'डांस -बार ', 'काल -गर्ल' और 'गिगोलो' की जो नव-संस्कृति पैर पसार रही है, उसके बारे में आपका क्या कहना है ,राजेन्द्रजी? क्या आप इसको भी नारी- सशक्तिकरण का ही रूप मानते हैं ??
राजेंद्रजी, मदर टेरेसा आजीवन अविवाहित रही ,फिर भी नारी सशक्तिकरण के आन्दोलन में उनका कार्य अनुकरणीय है॥ आज भी अनेको अविवाहित महिलाऐं बिना गुरु वात्सयायन की शरण में गए सफलता के उच्च शिखर पर है।क्या आप इसको भी झुठलातें हैं? अरुणा राय ,महाश्वेता देवी,इन्द्रा नूई,सनिया मिर्जा ,किरण बेदी आदि अनेक उदहारण है , जो आज सशक्त नारी की पर्याय हैं ॥इसके बावजूद कि हम उनके 'बेडरूम का विवरण' नहीं जानते!!!
हमारे देश में जिन कन्या-भ्रूणों को असमय मार दिया जाता है , उनकी योनी क्या पाश्चात्य देशों की कन्याओं से भिन्न होती है? इस कुप्रथा के मूल में सामाजिक-आर्थिक विद्रूपता है ,ना की यौनाचार पर रोक-टोक।
अतः राजेंद्र जी और उनके जैसे अन्य मनीषीयों से अनुरोध हैकि समाज के इतने महत्वपूर्ण पदों पर आसीन होने के बाद कुछ भी लिखने या बोलने के समय संकीर्णता त्याग कर मुद्दों को उनके बृहद कैनवास में देखें.वरना नारी-विमर्श जैसे संवेदनशील मुद्दों से जुडे लोगों के प्रयास को आप हानि ज्यादा पहुचाएंगे ,ना कि कोई सार्थक योगदान.